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कैसा शहर / संगीता गुप्ता

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कोई भी पूरी तरह पहचाना हुआ नहीं
दोस्तों के
चेहरों पर चढ़े
मुखौटे

चक्रव्यूह
छोटे बड़े
अपने - पराये द्रोणाचार्यों के बनाए
पहली से पांचवीं मंजिल तक पसरे
भीतर जाकर निकलना रोज

महत्वाकांक्षाएं
लील जातीं
संवेदनाएं, शुभेच्छाएं

यह
कैसा शहर