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कैसी कैसी नहीं करता रहा मनमानी मैं / भवेश दिलशाद

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कैसी-कैसी नहीं करता रहा मनमानी मैं
सोचकर अपने लिए लिखता था लाफ़ानी मैं

भीड़ में सबकी तरह ज़ुल्म पे चुपचाप रहा
आज फिर एक दफ़ा मर गया इंसानी मैं

मेरे बनने का है सामान कि मिटने का नसीब
तन से मटमैला हूँ और आँखों से अस्मानी मैं

पैदा होने के तो मतलब न रहे होंगे कुछ
बस कि अब मरना नहीं चाहता बेमानी मैं

एक तारीख़ की तामीर करे वो लमहा
एक समंदर जो रचे बूँद वही यानी मैं