भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कैसी यह रात / नीरजा हेमेन्द्र
Kavita Kosh से
रात है यह कैसी ?
सर्द अँधेरी !
हृदय में प्रवेश करती है/बर्फीली हवा
दम घुट रहा है
कोहरे भरी शुष्क रात में
कैसा है हमारा यह शहर
धनी-निर्धन की बदकिस्मत दीवारों से
बँटा हुआ
अपने दुधमुंहे बच्चे के साथ/दिन भर
रेलवे प्लेटफार्म पर भीख मांगने के उपरान्त
थक कर उँघती औरत
भूख, बीमारी और अभावों से/लथ-पथ
पुल के नीचे ठिठुरते हुए
भिखारियों को देख कर
झकझोर रहा है स्वाभिमान मुझे
सूखे पत्ते की भाँति, टूट रहा है हृदय,
हृदय! जिसे असीम प्रेम है इस दुनिया से
जागेगा सूर्य /उड़ेलेगा प्रकाश, पूरी सृष्टि पर
मानव-सा सरल, हथेलियों-सा नर्म/सुन्दर
सद्भावनापूर्ण संसार
परिलक्षित होगा/ दिव्य संसार।