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कैसी रही बहार की आमद न पूछिए / द्विजेन्द्र 'द्विज'
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कैसी रही बहार की आमद न पूछिए
इन मौसमों के साथियो मक़सद न पूछिए
ये तो ख़ुदा के राम के बंदे हैं इनसे आप
पूजा—घरों के टूटते गुंबद न पूछिए
इस युग में हो गया है चलन ‘बोनसाई’ का
यारो, किसी भी पेड़ का अब क़द न पूछिए
है आज भी वहीं का वहीं आम आदमी
किस बात पर मुखर है ये संसद न पूछिए
ये ज़िंदगी है अब तो सफ़र तेज़ धूप का
वो रास्तों के पेड़ वो बरगद न पूछिए