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कैसी समझ तुम्हारी है जो / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’
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कैसी समझ तुम्हारी है जो
तुम मुझसे गाने कहते हो
कौन मिला जीवन में अपना
जिसको अपनाने कहते हो
देख चुका हूँ दुनिया सारी
अपने रँग में रँगी हुई है
कौन मिला सहलाने वाला
जो मन बहलाने कहते हो
नभ में हैं ये चाँद सितारे
पावस की है रात भींगती
सम्मुख है तस्वीर तुम्हारी
इसका क्या माने कहते हो
मैं करता हूँ बात तुम्हारी
आँखें क्योंकर झेंप रही हैं
उत्तर के बदले में केवल
तो हम क्या जाने कहते हो
ऐसी उलझन लगी हुई है
जिससे थककर हार गया हूँ
फिर मेरी हस्ती ही क्या जो
मुझसे सुलझाने कहते हो
कैसी समझ तुम्हारी है जो
तुम मुझसे गाने कहते हो