भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कैसे? / अमरजीत कौंके
Kavita Kosh से
मेरी आँखों से
लोग तुम्हारी तस्वीर पहचान लेते हैं
मेरे चेहरे से तुम्हारी मुस्कान
मेरे पैरों से लोग
तुम्हारे घर का रास्ता ढूँढ लेते हैं
मेरी उँगलियों से लोग
तुम्हारे नक्श तराशते
मेरे कानों से
तुम्हारी आवाज़ सुनते
मेरे शब्दों से तुम्हारे नाम की
कविताएँ ढूँढ़ते
मेरे होठों से लोग
तुम्हारे जिस्म की गंध
पहचान लेते हैं
जिस्म मेरा है
लेकिन तुम मेरे जिस्म में
किस-किस तरह से रहती हो।