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कैसे करि हरि! यह मन मारूँ / स्वामी सनातनदेव

राग कलावती, ताल मूल 17.8.1974

कैसे करि हरि! यह मन मारूँ।
पलहुँ न यह थिर होत प्रानधन! कैसे याकी हलचल वारूँ॥
करि-करि जतन थक्यौ मैं प्रीतम! कब लौं यों मैं पुनि-पुनि हारूँ।
अपने बलसों भयो न कछु हरि! अब मैं तुव बल ओर निहारूँ॥1॥
हार-जीत अब रही तिहारी, मैं तो तुव पद-सरन सम्हारूँ।
मारो वा तारो या मनकों, मैं तो तुव पद-रति हिय धारूँ॥2॥
तुव पद-रति ही है मो जीवन, यापै जोग-भोग दोउ वारूँ।
कहा काम तन-मनसों मेरो, जब तुव पद निज धन निरधारूँ॥1॥
आतम के आतम हो प्यारे! तुमहिं पाय मैं कहा सम्हारूँ।
तन मन धन इह-पर की सम्पति सबनि प्रानधन! तुम पहँ वारूँ॥4॥
तुम मेरे मैं सदा तिहारो-यह सम्बन्ध न कबहुँ बिसारूँ।
सचमुच तो तुम ही हो सब कुछ, फिर क्यों या मनसों हौं रारूँ<ref>झगड़ा, रार करूँ</ref>॥5॥

शब्दार्थ
<references/>