कैसे कर सकते हो तुम ? / कृष्णा वर्मा
कैसे कर सकते हो तुम
अचानक यूँ बेदख़ल
मेरे वजूद को
अपने प्यार के
कोसे अहसास से ।
समय-असमय
पहरों बाँटे दुख-सुख से
कैसे छोड़ सकते हो
मेरी मौजूदगी को
तन्हाई की कड़क धूप में
अकेला तपने के लिए।
कैसे तज सकते हो
मेरी सत्ता को
घुट कर सिकुड़ जाने को
उदासी की बर्फबारी में।
इतना भी ना सोचा
कि तुम्हारी इस बेरुख़ी से
कैसे पसर जाएगी
अनिश्चितता की धुंध मेरे चारों ओर
और खड़ा रह जाएगा मेरा वजूद
रास्ते पर लगे साइन बोर्ड सा।
ज़रा सा भी ख़्याल ना आया तुम्हें
मेरे पैरों तले की ज़मीन को खिसकाते
किंचित भी मोह ने नहीं झिंझोड़ा तुम्हें
मेरे सर से आकाश को ढलकाते
क्यूँ तनिक भी फिक्र ना हुई तुम्हें मेरी
किसी शून्य में खो जाने की।
देखना ढूँढते रह जाओगे तुम भी
जब लीन हो जाऊँगी मैं
अपनी ही नदी की लहरों में
गुम हो जाऊँगी
अपने आकाश की विभुता
और अपने ही ओसांक में।
क्रियाहीन हो जाएगा जब
तुम्हारे अह्म का सैलाब
तो
ढूँढेगा तुम्हारा बेकल होश
मेरे होने को।