कैसे कहें हम / इधर कई दिनों से / अनिल पाण्डेय
मन उदास नहीं था बन्धु
दुखी था अपनी तरह की दुश्वारियों से
तुम हंस रहे थे और तुम्हारे साथ ही वहां पर
सब हंस रहे थे अपने अपने हिस्से की हंसी
हाँ हम में से कुछ रो रहे थे इधर अपने में सिमटकर
क्योंकि रोना ही शेष था, हंसने के दिन रहे ही कब
कि खोलकर दिल हंस लें हम भी वातावरण में स्वर मिलाकर
बीत चुका था सुबह
सूरज बचपने की अठखेलियाँ छोड़कर हो चुका था जवान
समय का दोपहर सामने था अभी
आ चुके थे घर के लोग जिसको आना था
सब व्यस्त थे गाँव के अपने-अपने कार्यों में
लीपने-पोतने-बहोराने में मशगूल थीं औरतें गांव-घर की
बच्चे दौड़-दौड़ कर जुटा रहे थे सामान नव मंदिर निर्माण की
झोला-बोरी उठाए हुए नौजवान तैयार थे एकदम से बाजार के लिए
कुछ अलग तरह की व्यस्तता
बहुत अलग तरह के मिजाज में डूबा था परिवेश
तैयारी कर रहे थे रामायण पाठ की बहुत से लोग इधर
बहुत से लोग अलसाए से बैठे थे थक हार कर उधर
कहीं पटाखों की लिस्ट तैयार हो रही थी पूरे जोर-शोर से
कहीं मिठाइयों की वरायटी तय की जा रही थी
कहीं युवाओं का एक झुण्ड निकल पड़ा था
बैठ पड़े थे आठ-दस भाग्य आजमाने जुआ-बाजार में
बहुत सी आँखें व्यस्त थीं
बहुत दिनों से बाहर जा चुके अपने ललनाओं के आगमन में
खो चुके युवाओं के अधूरे स्वप्नों के साथ उनकी यादों में
बहुत सी निगाहें बेचैन थीं अपनों के पास न जा पाने की वेबसी में
बहुत से चेहरों पर नहीं थी रौनक कि वो मुस्कुरा भी सकें
दुखी दिल और हारे समय के साथ मायूस थे बड़े-बुजुर्ग
घर की तैयारी से बाज़ार हाट तक के मसौदे में न शामिल हो पाने से
बच्चे खिन्न थे इधर मिटटी के घंटी, तराजू के न मिल पाने से
उधर, रुआंसे चेहरे
हंसी की नाकाम कोशिशों के बीच
धूप, दीप, अगरबत्ती, बतासे के जुवाड़ में
धान-गेहूं की पोटली लिए खड़े हैं कब से दूकान की कतार में
दियली, कोशा, काजल-परई के असंतुलन में खोया मन
कोश रहा है लगातार सर पीट-पीट अपना जीवन
कह रहे थे सजीवन अभी दीपों की अवली तो उनकी होती है
जिनके घर सरसों के बाग़ सजाए जाते हैं
हमारी कैसी दीपावली जहाँ तेलों के काट से ही बथुवे-पालक के साग बनाए जाते हैं
हाँ, हममें से कुछ इधर
आज से नहीं, दुखी हैं अपने बाबा-दादा के जमाने से
बीमारी-महामारी-कर्जेदारी-बेरोजगारी के कठिन समय में
काटने-मीजने-जोतने-जुतने के बीच ही आते रहे हैं ये त्यौहार
सजा-धजा कर बनाते तो रहे हैं स्वर्ग इस धरा को सदियों से
करते रहे हैं हत्या हमारे अरमानों के लगातार बार-बार
कैसे कहें हम उजालों से भरा होगा हमारा घर-बार इधर
रोते हुए ही मिल रहे हैं जा रही ये निगाहें जिधर