कैसे कह दूँ / भरत प्रसाद
क्या हमारी शरीर में ऊँची जगह पाकर
हमारा मस्तिष्क सार्थक हो उठा ?
क्या हमारी आँखें सम्पूर्ण हो गईं,
हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा बनकर ?
क्या हमने अन्धकार के पक्ष में बोलने से
बचा लिया ख़ुद को ?
क्या सीने पर हाथ रखकर कह सकता हूँ मैं
कि अपने हृदय के कार्य में कभी कोई बाधा नहीं डाली ?
आत्मा की गहराइयों से उठे हुए विचारों की
क्या मैं हत्या नहीं कर देता ?
दरअसल अपनी गहन भावनाओं का सम्मान करने वाला
मैं उचित पात्र ही नहीं हूँ ।
वे इस कायर ढॉचे में क्यों उमड़ती हैं ?
छटपटाकर मरती हुई अन्तर्दृष्टि से प्रार्थना है—
कि वे इस जेलखाने को तोड़कर कहीं और भाग जाएँ ।
अपनी अन्तर्ध्वनि का तयपूर्वक मैंने कितनी बार गला घोंटा है,
कौन जाने ?
पूरी शरीर को ता-उम्र कछुआ बने रहने का रोग लग चुका है,
हाथ-पैर, आँख-कान-मुँह आज तक अपना औचित्य सिद्ध ही नहीं कर पाए
करना था कुछ और तो कर डालते हैं कुछ और
दृश्य-अदृश्य न जाने कितने भय और आतंक से सहमकर
पेट में सिकुड़े रहते हैं हर पल ।
मेरा अतिरिक्त शातिर दिमाग़ शतरंज को भी मात देता है,
भीतरी के अथाह खोखलेपन के बारे में क्या कहना ?
कैसे कह दूँ कि मैं अपने जहरीले दाँतों से,
प्रतिदिन हत्याएँ नहीं किया करता ?
(अक्टूबर-2010)