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कैसे कह दूं / इधर कई दिनों से / अनिल पाण्डेय

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कैसे कह दूं
शुभ दीवाली और किसी को
खुद जब अँधेरे से घिरा हुआ हूँ

'घर' में होते हुए भी
'बाहर-बाहर' रह गया हूँ
सहा नहीं जो वर्ष भर
इन कुछ घण्टों में सह गया हूँ

कैसे कह दूं
खुश रहे किसी को
दुःख में खुद जब पड़ा हुआ हूँ

दिये इधर जले नहीं हैं
तम घोर घटा की उमड़ चली है
अन्दर-बाहर गुलजार है लेकिन
जलन हृदय की बढ़ गयी है

कैसे कह दूं
बढ़े प्रेम हर मन-मन्दिर में
घृणा-पत्र तक जब सिमटा हुआ हूँ

ये दीवाली हर साल है आती
अन्धकार दे जाती है
पहला रहता हूँ खुश लेकिन
दुखी अधिक कर जाती है

कैसे कह दूं
समृद्ध रहें सब जीवन भर
उम्र भर दारिद्र्य में बझा हुआ हूँ

कैसे कह दूं
शुभ दीवाली और किसी को
खुद जब अँधेरे से घिरा हुआ हूँ