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कैसे कोंपल कहें / कुमार रवींद्र
Kavita Kosh से
साँसों से
कैसे कोंपल कहें
पेड़ों के कंधे हैं कटे हुए
पँखों पर लादकर
हवाओं को
पंछी हो गये साँझ
सूरज के बीज को उगाते
जंगल हो गये बाँझ
ऐसा ही होता है
मौसम भी होते हैं बँटे हुए
कंठ में
सरोवर की प्यास है
सागर कैसे कहें
आँखों में पथराए द्वीप हैं
उन तक कैसे बहें
होंठों तक गीत
वही आते हैं रटे हुए
सोच रहीं शाखाएँ
पत्ते ये भी झरें
पिछले सन्नाटों की
गूँजों का क्या करें
पतझर को क्या कहें
फागुन के पत्र मिले फटे हुए