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कैसे ठहरेगा प्रेम जन्म-मृत्यु को लाँघ / हिमांशु पाण्डेय

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तुम आते थे
मेरे हृदय की तलहटी में
मेरे संवेदना के रहस्य-लोक में
मैं निरखता था-
मेरे हृदय की श्यामल भूमि पर
वन्यपुष्प की तरह खिले थे तुम ।


तुम आते थे
अपने पूरे प्रेमपूर्ण नयन लिये
निश्छल दूब का अंकुर खिलाये
मुग्धा, रसपूर्णा, अनिंद्य ;
मेरी चितवन ठहरा देते थे
अपने उन किसलय-कपोलों पर ,
फिर तुम्हारी श्वांस-रंध्र में समाकर
अनन्त यात्रा पूरी हो जाती थी ।


तुम आते थे
साँझ-सकारे के बादल के किनारे
चमके सितारे की तरह,
मेरी बरौनियों में उमड़ पड़ता था
आश्चर्य-मोद-लोक;


सोचता हूँ
कितना छोटा होता है प्रत्येक निमिष
कितनी छोटी होती है तुम्हारी चितवन
कितना छोटा होता है तुम्हारा आलिंगन

फिर यह भी सोचता हूँ
कि कितना छोटा होता है यह क्षण,

पर यह विस्तरित न हो
इस जगती में, इस विपुल व्योम में
तब कैसे
काँपेंगे अन्तराकुल मन,
कैसे विहरेंगी साँसे
कैसे ठहरेगा प्रेम
जन्म-मृत्यु को लाँघ !