कैसे तुम्हें दिखाऊँ, हे बृषभानुलली! / हनुमानप्रसाद पोद्दार
कैसे तुम्हें दिखाऊँ, हे बृषभानुलली! मेरा मन खोल।
कैसे तुम्हें बताऊँ मनके भावोंका स्वरूप अनबोल॥
तुम्हें देखता जब वियोगपीडित, मन व्यथित कभी क्षण एक।
दारुण पीड़ार्णव उरमें अति पड़ता उमड़, छोड़ सब टेक॥
कितनी व्यथा भयानक, कितनी मर्मघातिनी वह पीड़ा।
नहीं बता सकता, बतलाना चाहूँ भी यदि तज व्रीड़ा॥
किंतु इसीके साथ अनोखा मिलन सदा होता रहता।
उससे एक अजस्र विलक्षण मधुमय रस-सोता बहता॥
अति गभीर अमल उस सुधा-स्रोतमें कर अवगाहन-पान।
सुख अनुपम अनवद्य प्राप्तकर निरवधि शीतल होते प्राण॥
अनुभव होता प्रिये! तुम्हारा रहता नित अभिन्न संयोग।
होता नहीं तुम्हारा मुझसे राधे! पलभर कभी वियोग॥
सदा मिले रहते हम दोनों सूर्य-सूर्यकी रश्मि समान।
विलग नहीं हो सकते तुम-हम दोनों भगवा-भगवान॥
इतनेपर भी होता रहता सदा मिलन-बिछुडऩका भान।
ललित लहरि-लीलोत्सव प्रेम-सुधा-सरिका यह दिव्य महान॥
अथवा प्रेम-तटिनिके ये दो सुन्दरतम तट अति पावन।
विप्रलभ, प्रिय-मिलन विमल रसवर्द्धक प्रियजन-मन-भावन॥
विरह-तप्त हो जब तुम दिखलाया करती हो मुझपर रोष।
मुझे दिखायी देने लगते तब मुझमें अति अगणित दोष॥
सोचा करता तब मैं, हे प्राणेश्वरि! तुम कर सोच-विचार।
त्याग क्यों नहीं कर देती हो क्यों सहती यों अत्याचार?
कर जाता प्रवेश तब शुचितम उर-मन्दिरमें मैं तत्काल।
देख वहाँका दृश्य दुःख सब मिटते, होता तुरत निहाल॥
सुन्दर विकसित सुमनावलि सुरभित से सज्जित नवल निकुज।
रस-साधन समस्त आपूरित मधुर मनोहर सुषमा-पुज॥
बाह्य रोषको देखा मैंने वहाँ मधुर-रस प्रेमाधार।
दोष-कल्पना-शून्य नित्य निरवधि गुण-दर्शन सहज अपार॥
बिछी कुसुम-कोमल सुख-शय्या, प्रिये कर रही आलिङगन।
परम सुखास्वादन-रत, अति व्यवधान-रहित सुस्मित तन-मन॥
नहीं लेशभर केश-कल्पना, नहीं कदापि वियोग-विछोह।
नहीं जगतकी-भोगोंकी स्मृति, नहीं विषय-ममता-मद-मोह॥
इसी तरह बाह्यस्नयन्तरमें रहता सदा तुम्हारा संग।
करते शुभ संस्पर्श परस्पर सदा-सर्वदा ही सब अंग॥
कभी तुम्हारे सिवा किसी को यदि देता मनमें कुछ स्थान।
विमल तुम्हारे रसका केवल अधिकाधिक करनेको पान॥
सभी जानती हो तुम मेरे मनकी छोटी-मोटी बात।
क्योंकि स्वामिनी बन तुम उसमें करती हो निवास दिन-रात॥
करो प्रशंसा-निन्दा या दुत्कारो, करो परम सत्कार।
नित नव-रस-आस्वादन, नित्य नवीन मधुर लीला-विस्तार॥