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कैसे देखूँ / प्रभात रंजन
Kavita Kosh से
डूबती साँझ की व्यथा
कैसे देखूँ-
इन सहमे उदास पेडों को
कैसे देखूँ-
इस स्तब्ध अंधियारी को
कैसे देखूँ-
यह भयावना एकाकीपन
और सूनी बोझिल शामें
यह घुट-घुट, डूबती स्याह शामें-
पूजा घंटियों को शून्य कर देने वाली प्रतिध्वनियाँ
झाड़ियों में झींगुरों का अनवरत गुंजन,
नयन-तट से अवश्य होते पाल
झिलमिलाते द्वीप-
कैसे? कैसे? कैसे?... मैं
कैसे देखूँ !