कैसे पुकारुँ - 2 / मोहन कुमार डहेरिया
वर्षों से पुकार रहा हूँ तुम्हे
ओ मेरे छूटे हुए प्रेम
पहुँच नहीं पाती तुम तक मेरी आवाज
तुम्ही बताओ कैसे पुकारुँ
किसी प्रागैतिहासिक मनुष्य सा पुकारुँ
उछालता हुआ अपनी आवाज से कामनाओं के छीटें
किसी घोंसले सा मूक आवाज में पुकारूँ
आग की लपटों में घिर जाने के बाद जो पुकारता है
अपने परिन्दों को।
या किसी विदूषक सा पुकारूँ
सुनाकर कोई चुटकुला
बुना होता है जो आर्तनाद के रेशों से
उस सूफी गायक सा पुकारना भी हो सकता है असरदार
जो एक ही पंक्ति को लयबद्ध ढंग से दोहराता है
बार-बार खटखटा रहा हो
मानो अपने आराध्य का द्वार
ठीक एक निश्चित अंतराल के बाद
कर रहा हूँ वर्षों से कोशिश
पहुँचती नहीं तुम तक मेरी आवाज़
उम्मीद की किस दिशा से
विश्वास की कौन-सी जमीन पर खड़े होकर पुकारुँ
कि तुम तक पहुँच जाए मेरी आवाज़
तुम्हारे घर की खिड़कियों, दरवाजों पर
फेंकूं अगर अपने क्रोध के पत्थर पुकार के रूप में
माना जाएगा इसे पागलपन का लक्षण
काटकर अपनी जीभ
एक मूर्ति को अर्पित कर पुकारने का यह अंदाज भी
रास नहीं आएगा किसी को
तुम्ही बताओ
ओ मेरे छूटे हुए प्रेम
कैसे पुकारुँ तुम्हें
कि तुम तक पहुँच जाए मेरी आवाज़