कैसे बदलेगा ये मंज़र सोचता रहता हूँ मैं
बोलता कुछ भी नहीं पर देखता रहता हूँ मैं
बंद कर लेता है वो बिस्तर की मुट्ठी में मुझे
और नंगे जिस्म के अंदर खुला रहता हूँ मैं
जानता हूँ हर्फ़-कारी का कोई मतलब नहीं
फिर भी ग़ज़लों में तुझी से बोलता रहता हूँ मैं
कुछ नहीं मिलना मुझे मालूम है अच्छी तरह
फिर भी जैसे तुझ को ख़ुद में ढूँढता रहता हूँ मैं
चाहता भी हूँ कि वो इक दिन मुझे खुल कर पढ़े
जब कि उस के सामने ही कम-नुमा रहता हूँ मैं
क्यूँ नहीं कहता ख़ुदा से भी मिल जाए मुझे
कौन है जिस के लिए ख़ामोश सा रहता हूँ मैं
और जब हासिल मुझे हो जाएँ तेरी गर्मियाँ
बर्फ़ हो कर अपने ऊपर ही जमा रहता हूँ मैं