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कैसे बदले जिंदगी / पृथ्वी: एक प्रेम-कविता / वीरेंद्र गोयल

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मैं इसी में खुश था
कि तुमसे बात हो जाती थी
छीन ली तुमने वो भी खुशी
ये कहकर कि तुम पराई हो
अब तो बस उदासी है और आँसू
धुँधला-धँधला-सा सब
क्यों किसी पराये को
अपना समझ बैठा
ये मेरी हद में ना था
कि बदल लेता जिंदगी
उसी से जिसे तुम अपना समझती हो
पाऊँ तुम्हें अगले जन्म
इतना बस में नहीं
मेरे हाथ, मेरी सोच,
नाप नहीं सकते आने वाला कल
ना ही पकड़ सकते
बीतते हुए क्षण
जीना चाहता हूँ बस वर्तमान
बंधनों से रहित
ताकि इंतजार ना रहे भविष्य का
अफसोस ना हो उसका
जो बीत गया।