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कैसे बना सकी खुद को / वत्सला पाण्डे
Kavita Kosh से
सोचती रही हूं अक्सर
अंधेरों में कौंधती
बिजलियों के
प्रथम स्पर्श में
क्या दिया था
तुमने
एक फलसफा
जिसे
पढते रहे सब
मगर मैं नहीं
या
एक त्रासदी
जिसे भोगने का
दायित्व दे दिया गया
मुझे
न जाने कब
एक दिन
रंगों से भर गया
कैनवास मेरा
उकेर लिया खुद को