भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कैसे मामा हो तुम चन्दा / प्रभुदयाल श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कैसे मामा हो तुम चन्दा,
कभी हमारे घर न आये।
न ही भेजी चिट्ठी पाती,
न ही टेलीफोन लगाये।

कभी हमारे घर तो आते,
माँ से राखी तो बंधवाते।
तभी भांजा कहलाता मैं,
तभी आप मामा कहलाते।
अपनी जीवन कथा हमें क्यों,
नहीं कभी सूचित कर पाये।

खीर पूड़ी तुमने है खाई,
मेरी माँ से ही बनवाई।
कहते हुए बहुत दुःख तुमने,
रिश्तेदारी नहीं निभाई।
बोलो मुझे किसी मेले से,
कितनी बार खिलोने लाये?

शहरों में तो याद तुम्हारी,
भूले बिसरे गीत हो गई।
चाँद चांदनी हुए लापता,
बिजली मन की मीत हो गई।
अपनी करनी से तुम मामा,
दिन पर दिन जा रहे भुलाये।

अभी गाँव छोटे कसबों में,
झलक तुम्हारी दिख जाती है।
शरद पूर्णिमा को मामाजी,
याद तुम्हारी आ जाती है।
नए ज़माने की नई पीढी,
मुश्किल है तुमको भज पाये।

किसे समय है आसमान में,
ऊपर चाँद सितारे देखे।
बिजली की चमचम के कारण,
देखे भी होते अनदेखे।
शायद याद तुम्हारी पुस्तक,
कापी तक सीमित रह जाए।

लोग तुम्हारी छाती को ही,
पैरों से अब कुचल रहे हैं।
और तुम्हारी धरती पर ही,
अब रहने को मचल रहे हैं।
बहुत कठिन है देह तुम्हारी,
पहले-सी पावन रह पाये।