कैसे सस्मित हो यह आनन / भोला पंडित प्रणयी
कैसे सस्मित हो यह आनन, जब मन में उल्लास नहीं है,
सुमन खिले सूखी डाली पर, ऐसा तो विश्वास नहीं है ।
जिस घर माँगा प्यार उसी ने
उलझन का उपहार दिया है,
फूलों के बदले दुनिया ने
पत्थर से सत्कार किया है ।
उलझा-उलझा मन है मेरा, चातक हूँ पर प्यास नहीं है
जब तक मौसम साथ निभाए
तब तक गंध सुमन ने छोड़े,
नीरस जीवन की परिभाषा
देकर वह संत्रास ही जोड़े ।
सूखे अधर दिखाऊँ कैसे, जब उसमें मीठास नहीं है
टूटा पात लौट कर जैसे
कभी नहीं डाली पर आता,
अँखियन में जब नींद नहीं
फिर स्वप्न कहाँ उसमें आ पाता ।
सूखे हुए सुमन में सच ही, फल का कभी विकास नहीं है
आई बार-बार हैं घड़ियाँ
टकराती जब नाव किनारे,
स्वर बंदी तब हो जाते हैं
मिलते जब न शब्द-सहारे ।
क़लम उत्साहित है लिखने को, भाव ही मेरे पास नहीं है