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कैसे साँचों में ढल रहे हैं दिए / विजय किशोर मानव
Kavita Kosh से
कैसे सांचों में ढल रहे हैं दिए
पूरी पीढ़ी को छल रहे हैं दिए
बस्तियों में घना अंधेरा है
श्मशानों में जल रहे हैं दिए
झुग्गियों को कोई ख़बर कर दे,
आस्तीनों में पल रहे हैं दिए
कहां है सर पे ताज सूरज के,
और कहां हाथ मल रहे हैं दिए
घुप अंधेरों के साए हैं जिन पर,
उन जुलूसों में चल रहे हैं दिए