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कैसैं बिनय सुनावौं, स्वामी! / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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कैसैं बिनय सुनावौं, स्वामी!
छिपी न कछु तुम सौं अंतर की, सब के अंतरजामी॥
सब बिधि हीन, मलिन-मति मोपै परम अनुग्रह कीन्हौ।
निज स्वभावबस मान, बिपुल जस, धन-बैभव बहु दीन्हौ॥
सब लोकनि में साधु कहायौ, भक्तराज पद पायौ।
रह्यौ बासना-बिबस निरंतर नित बिषयन प्रति धायौ॥
कनक-कामिनी-रस-बस निसि-दिन सहज कुमारगगामी।
भूल्यौ परम अनुग्रह प्रभु कौ ऐसौ नौंन-हरामी॥
हौं अति कुटिल, कृतघ्री, कामी, नरक-कीट, अघ-भार।
निज दिसि देखि, बिरुद लखि, मोहि उबारहु परम उदार॥