कैहनोॅ होतेॅ होतै ऊ लोग / धर्मेन्द्र कुसुम
कैहनोॅ होतेॅ होतै ऊ लोग
जे घूमै छै देश-विदेश/चढ़ै छै हवाई जहाजोॅ पर
जहाँ परी सिनी हुऐ छै परिचारिका
बादलोॅ सें ऊपर उड़तें हुएॅ/आकाश पर बसलोॅ स्वर्ग के
नजदीक सें गुजरतें हुएॅ/कैहनोॅ लागतेॅ होतै ओकरा
हीरामन पूछै छै-कहाँ करतेॅ होतै/पेशाब, पैखाना आरू स्नान
नै करतें होतै तेॅ की/नै छै हमरोॅ रँ ऊ लोग
की भगवानें हमरै सब केॅ/देनें छै भूख
आरो पेट-पीठ, हाथ-गोड़/जेकरा भरना, ढँकना
आरू धोना छै जरूरी/आकि हमरे रँ छै ऊ लोग
पता नै कैहनोॅ होतेॅ होतै ऊ लोग
जरूर खैतें होतै सोना के चैॅर
चाँदी के दाल, हीरा के चटनी/नहिंये खैतें होतै सत्तू आरू साग
घोंघा, केकड़ा, चूहा आरू खरहा
तहीं तेॅ गुजरै छै भगवानोॅ के नगीच सें
झूठ बोलै छै अलगू झा पंडित
कि मंदिर में छै भगवान/भगवान तेॅ रहै छै वहाँ
आकाश में, जहाँ घूमै छै ई लोग
यही लेॅ तेॅ /जखनी-जखनी देखाय दै छै जहाज
हीरामन बाँसोॅ के सीढ़ी लेॅ केॅ
दौड़ै छै, कूदै-मचलै छै/मतरकि नै चढ़ेॅ पारै छै
आरू, तब उदास भै केॅ सोचते रहै छै
कथी लेॅ ऐहनोॅ कल्पना ही करै छै
दोसरोॅ दुनियाँ के छै ऊ लोग
जे चढ़ै छै हवाई जहाज पर ।