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कॉलसेंटर की गाड़ियाँ / दिनेश कुमार शुक्ल
Kavita Kosh से
तुम्हारी बेटी
कल वापस चली गयी बेंगलूर.... दूर....
आज मेधा पाटकर की-सी
लग रही हैं तुम्हारी लटें
चॉंदी के तार,
कोने में धरा उसका सितार
मई की धूल से धूसरित
धूल जलती है गगन की धमनभट्ठी में...
बन्द हो रहे हैं सरकारी उपक्रम कारख़ाने
निम्बौरियों की सुगन्ध आज भी
हमारे यौवन को छूती है !
अब बहुत कम लोगों के पास
बची हैं नौकरियाँ
तेज़ी से भागती कॉलसेंटर की गाड़ियाँ
पृथ्वी की खाल छीलते हुए
बुझी-बुझी आँखों का असबाब ढोती
टक्कर मारती जा रही हैं
वैतरणी के ठोस जल पर
दौड़ती-खूँदती कॉलसेंटर की गाड़ियाँ...
ये गाड़ियाँ,
बताना भाई,
पेट्रोल से चलती हैं
कि ख़ून से ?