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कोंपलों-सी नर्म बाहें / बुद्धिनाथ मिश्र

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ये तुम्हारी कोंपलों-सी नर्म बाँहें
और मेरे गुलमुहर के दिन ।
आज कुछ अनहोनियाँ करके रहेंगे
प्यार के ये मनचले पल-छिन ।

बाँधता जब विंध्य सिर पर लाल पगड़ी
वारुणी देता नदी में घोल
धुन्ध के मारे हुए दिनमान को तब
चाहिए दो-चार मीठे बोल ।
खेत की सरसों हमारे नाम भेजे
रोज़ पीली चिट्ठियाँ अनगिन ।

बौर की ख़ुशबू हवा में लड़खड़ाए
चरमराएँ बन्दिशें पल में
क्यों न आओ, हम गिनें मिलकर लहरियाँ
फेंक कंकड़ झील के जल में ।
गुनगुनाकर ‘गीत गोविन्दम्’ अधर पर
ज़िन्दगी का हम चुकाएँ रिन ।

एक बौराया हुआ मन, चन्द भूलें
और गदराया हुआ यौवन
घेरकर इन मोह की विज्ञप्तियों से
वारते हम मृत्यु को जीवन ।
रोप लें हम आज चन्दन-वृक्ष, वरना
बख़्शती कब उम्र की नागिन !

आज कुछ अनहोनियाँ करके रहेंगे
प्यार के ये मनचले पल-छिन ।