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कोई अपना नहीं है अपनी सी लगती इस दुनिया में / चन्द्र
Kavita Kosh से
मेरी फटती छाती और पीठ पर
उऽऽउफ़्फ़ !
कितने घाव हैं ?
उऽऽउफ़्फ़ !
उऽऽउफ़्फ़ !
कि कोई अपना नहीं है अपनी सी लगती
इस दुनिया में ।
कि एक मामूली मजबूर मजूर के घावों के भीतर
टभकते
कलकलाते मवाद को
धीरे-धीरे-धीरे आहिस्ते-आहिस्ते
और नेह-छोह के साथ
कोई काँटा चुभो दे
फोड़कर
उसे बहाने के लिए…उऽऽउफ़्फ़ !
कि कोई अपना नहीं है अपनी सी लगती
इस दुनिया में ।
ओह !
कितनी पराई दुनिया है ना ‘मोहन’
कि समझती नहीं
कोमल आह
हमारे जैसे बेबस मज़दूरों की !
उफ़्फ़ !
कि कोई अपना नहीं है अपनी सी लगती
इस दुनिया में !