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कोई आकृति / नरेन्द्र जैन
Kavita Kosh से
उसकी कल्पना से बड़ी दुनिया
आज तक बसी नहीं
जब वह
सोचता है
दुनिया छोटी होती है उसके
आगे
ठीक उसकी हथेली पर खिले
फूल की मानिन्द
उसके सपने
घूमते ग्रहों के चमकते जाल हैं
रोशनी होते हैं जो
उसकी इच्छाओं के सूरज से
वह खींचता है
ज़मीन पर कोई लकीर
और जीवित हो उठती है
ज़मीन पर आकृति
दुनिया बहुत बड़ी होगी
अगर वह चाहे
बयान कर दे उसे
दो शब्दों में