भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कोई ऐसा शहर होता तो हम वहाँ चले जाते / महेश सन्तोषी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जहाँ लोग प्यार से बोलते, मिलते-मिलाते
जीवन को एक गीत समझते
हर बोझ उठाते गाते-गाते
कोई ऐसा शहर होता
तो हम वहाँ चले जाते

जहाँ एक-एक सांस कीमती होती
ज़िन्दगी किसी की भी होती, बेशकीमती होती,
जमीर का कोई बाजार नहीं होता कहीं
जमीर की कहीं कोई बिक्री नहीं होती,
कोई पीछे नहीं रहता इंसानियत की दौड़ में
आखिरी आदमी में भी
पूरी-पूरी आदमियत होती।
दूसरों की उम्र के लिए सब मन्नतें मानते।
मोमबत्तियाँ जलाते

बाद में पिघलता, सामने जलता मोम
पहले, लोगों के दिल पिघल जाते
कोई ऐसा शहर होता
तो हम वहाँ चले जाते।

शहर की बुनियादों में ईंट और पत्थर तो होते
पर जो दिलों को जोड़ती दो ईंटें भी कहीं होतीं।
कम से कम प्यार की एक पगडण्डी तो ऐसी होती
जिसकी सरहदें कहीं नहीं होतीं
सब अपनी-अपनी ऊंचाईयाँ छूते
कोई दूसरों का कद कम नहीं करता
कहीं कोई जहर नहीं बोता
गलियों में, मौहल्लों में
नफरत की खेती नहीं होती
हमसफर वहाँ तक साथ निभाते
जहाँ तक रास्ते जाते,
जो भी रास्ते जाते, रूह से होकर जाते।
रोशनी की एक नदी दिलों से दिलों तक बहती होती
लोग एक-दूसरे के लिए
हथेलियों के, बांहों के, पुल बनाते
कोई ऐसा शहर होता
तो हम वहाँ चले जाते।