भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कोई क़ीमत भले चुकाओ / मुकुट बिहारी सरोज

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कोई क़ीमत भले चुकाओ,
लेकिन जलकर रात बिताओ ।

नहीं देखते हो कि किस कदर अन्धकार है,
चेतन तो चेतन, जड़ पर भी भय सवार है ।
कोई आवागमन, न कोई बोला-चाली
इस हद तक हो गई है रोशनी की कंगाली ।

या तो शर्त जागरण की बदते न सुबह से,
या फिर पूरे करके सारे कौल-क़रार बताओ ।

तुम तो बहुत अनुभवी हो, सदियों जागे हो,
ऐसा कभी हुआ कि रात दिन से आगे हो ?
और आँख गुँजाइश दे न किसी सपने को
ढूँढ़े मिले न मन्त्र सुमिरनी से जपने को ।

जीवन भूल न जाए जागने के महत्त्व को,
चाहे सूखी हो लेकिन बाती उकसाओ ।

दुनिया वाले इतनी उन्नति कर पाए हैं,
तब पेड़ों की छाया थी, अब घर आए हैं ।
यही उचित अवसर है, जब तुम नई राह दो,
नक्षत्रों के पते, सिन्धु की सही थाह दो ।

जब तक मानव के समीप साधन असीम हों,
तब तक और ज़रा संयम को आग पिलाओ ।