कोई क्यों लिखता है कविता ? / अनुपमा तिवाड़ी
कि, मैं क्यों लिखती हूँ कविता ?
किसी ने काम तो नहीं दिया कविता लिखने का
पर फिर भी मैं लिखती हूँ कविता.
कविता ने ही सिखाया
उगते सूरज से ही नहीं,
स्लेटी रूई के फाहों जैसे बादलों की पीछे ढलते सूरज से भी प्यार करना.
कविता ने ही सिखाया,
चिड़ियों को भी शुभकामनाएँ देना
कि चिड़ियों, तुम उड़ती रहना उन्मुक्त आकाश में,
अनंत काल तक.
तुम इतनी ही खुश रहना,
जितनी कि आज हो.
कविता ने ही उगते पेड़ों को देख,
जीवन में संभावनाएँ देखना सिखाया
कभी कविता पैदा हुई,
बाहरी पीड़ा के प्रसव से
तो कभी,
भीतर बह रहे झरने की झर - झर से.
जब कभी मन हारा
तो कविता ही सिरहाने आ,
झिंझोड़ कर बोली
"पागल समूचा समाज एक हो जाता है
तो क्या सुकरात गलत हो जाता है ?
क्या ईसा गलत हो जाता है ?
कविता है, तो तू है
कविता नहीं, तो तू भी नहीं !
तुम दोनों पर्याय हो एकदूसरे के".
शायद, इसलिये लिखती हूँ
मैं कविता.
शायद, इसलिए लिखता है
कोई कविता !
यूँ ही नहीं लिखता कोई कविता,
यूँ ही नहीं लिखता कोई कविता...