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कोई खुद्दार तेरा हमसफ़र हो भी तो कैसे हो / कांतिमोहन 'सोज़'

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कोई खुद्दार तेरा हमसफ़र हो भी तो कैसे हो ।
तेरे महफ़िल में कुश्तों का गुज़र हो भी तो कैसे हो ।।

परेशानी तो ये है खुद-अज़ीयत तेरी फ़ितरत है
दवा-दारू किसी की कारगर हो भी तो कैसे हो ।

सदाक़त पर समाजत को यहाँ तरजीह मिलती है
तेरी तंज़ीम में क़तरा गुहर हो भी तो कैसे हो ।

ज़मीं में डालता है बीज तू खारे-मुग़ीलां का
तेरे आँगन में बरगद का शजर हो भी तो कैसे हो ।

मेरी लाचारगी है तुझको राहे-रास्त पर लाना
गुरेज़ां सोज़ तुझसे इस क़दर हो भी तो कैसे हो ।।

29 जुलाई 1987