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कोई चाहत, कोई हसरत भी नहीं / दीप्ति मिश्र
Kavita Kosh से
कोई चाहत, कोई हसरत भी नहीं
क्यूँ सुकूँ दिल को मेरे फिर भी नहीं
जाने क्यूँ मिलती रही उसकी सज़ा
जो ख़ता हमने अभी तक की नहीं
हम भला हसरत किसी की क्या करें
हमको तो दरकार अपनी भी नहीं
तुम मआ'नी मौत के समझोगे क्या
ज़िन्दगी तो तुमने अब तक जी नहीं
शिद्दतों से हैं सहेजे हमने ग़म
थी ख़ुशी भी पर हमीं ने ली नहीं