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कोई जाता है यहाँ से न कोई आता है / बशीर बद्र
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कोई जाता है यहाँ से न कोई आता है
ये दिया अपने अँधेरे में घुटा जाता है
सब समझते हैं वही रात की क़िस्मत होगा
जो सितारा कि बुलन्दी पे नज़र आता है
बिल्डिंगें लोग नहीं हैं जो कहीं भाग सकें
रोज़ इन्सानों का सैलाब बढ़ा जाता है
मैं इसी खोज में बढ़ता ही चला जाता हूँ
किसका आँचल है जो कोहसारों पे लहराता है
मेरी आँखों में है इक अब्र का टुकड़ा शायद
कोई मौसम हो सरे-शाम बरस जाता है
दे तसल्ली जो कोई आँख छलक उठती है
कोई समझाए तो दिल और भी भर आता है
अब्र के खेत में बिजली की चमकती हुई राह
जाने वालों के लिये रास्ता बन जाता है
(१९७०)