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कोई जादू या फिर कोई हकीकत हो तुम / नीना कुमार
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कोई जादू या फिर कोई हकीकत हो तुम
मेरे माज़ी मेरी ज़ीस्त की कीमत हो तुम
बचपन में बहाया जिसे कश्तियाँ बनाकर
बेकाबू मौज थाम लेने की हिम्मत हो तुम
जलाया जिसे शम्मा-ए-जवानी बनाकर
अहद-ए-तरब की लौ की ज़ीनत हो तुम
आया समय पूछता है, ए गुज़िश्ता बरस
नूरे-चमक या गुजरी हुई ज़ुल्मत हो तुम
दश्त में ख़ाक हो किसी शम्मा में जल कर
क्या परवाना-ए-इश्क की फितरत हो तुम
फरेब, तिलिस्म, सिलसिले-सराब- कुछ और
‘नीना’ किस राज़े-अज़ल से निसबत हो तुम