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कोई तो कहो ! / जगदीश जोशी / क्रान्ति कनाटे
Kavita Kosh से
जब ग्रहों को खेल खिलाने का
मन हुआ तब मैंने
एक प्लेनेटोरियम बना लिया !
स्काईस्क्रैपर की छत पर
बासी बसन्त को
मरने दिया !
भूतकाल को मैंने तस्वीर में मढ़ लिया है
और इस तस्वीर का प्रदर्शन कर
लाँघ ली हैं मैंने काल की सीमाएँ ।
एक स्वीच ऑन
और तपती गरमी में
उतर आती है अनुकूल शीतलता ।
पतले तार मैं क़ैद हैं शब्द
और उन्हें मुक्त करने की चाबी
मैंने अपने हाथ में रखी है !
दवा की शीशी में
तन्दुरुस्ती भर
मैंने मौत से भी चाल चली है !
अपने बेचैन आकाश में मैंने
सूर्य-चन्द्र को
एक साथ प्रकटाया !
पर
कोई तो बताए
मैं जग रहा हूँ
या भभक रहा हूँ ?
मूल गुजराती से अनुवाद : क्रान्ति कनाटे