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कोई तो तर्क-ए-मरासिम पे वास्ता रह जाए / साबिर ज़फ़र

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कोई तो तर्क-ए-मरासिम पे वास्ता रह जाए
वो हम-नवा न रहे सूरत-आश्ना रह जाए

अजब नहीं कि मिरा बोझ भी न मुझ से उठे
जहाँ पड़ा है ज़र-ए-जाँ वहीं पड़ा रह जाए

मैं सोचता हूँ मुझे इंतिज़ार किस का है
केवाड़ रात को घर का अगर खुला रह जाए

किसे ख़बर कि इसी फ़र्श-ए-संग पर सो जाऊँ
मिरे मकान में बिस्तर मिरा बिछा रह जाए

‘ज़फ़र’ है बेहतरी इस में कि मैं ख़ामोश रहूँ
खुले ज़बान तो इज़्ज़त किसी की क्या रह जाए