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कोई दवा न दे सके, मश्वरा दुआ दिया / 'हफ़ीज़' जालंधरी
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कोई दवा न दे सके, मश्वरा दुआ दिया
चारागरों ने और भी दिल का दर्द बढ़ा दिया
ज़ौक़-ए-निगाह के सिवा शौक़-ए-गुनाह के सिवा
मुझको ख़ुदा से क्या मिला मुझको बुतों ने क्या दिया
थी न ख़िज़ाँ की रोक-थाम दामन-ए-इख़्तियार में
हमने भरी बहार में अपनाअ चमन लुटा दिया
हुस्न-ए-नज़र की आबरू सनअत-ए-बराहेमन से है
जिसको सनम समझ लियाउसको ख़ुदा बना दिया
दाग़ है मुझपे इश्क़ का मेरा गुनाह भी तो देख
उसकी निगाह भी तो देख जिसने ये गुल खिला दिया