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कोई दिल छू सका सिलसिला ही नहीं / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'

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कोई दिल छू सका सिलसिला ही नहीं
तन हज़ारों मिले मन मिला ही नहीं।

रात दिन दौड़ जारी रही तो मगर
खत्म होते दिखा फ़ासिला ही नहीं।

सारे मौसम गुज़रते गये बेअसर
क्यारियों में कोई गुल खिला ही नहीं।

छिल रहे पांव तो क्या सफ़र छोड़ दें
राहे-उल्फ़त में दिल तो छिला ही नहीं।

हुस्न की क्या बताएं वो नाज़ो-अदा
जो हुए इश्क़ में मुब्तिला ही नहीं।

कब था ठहरा यहां मुल्तवी कर सफ़र
याद आता कोई काफ़िला ही नहीं।

है यकीं रब की मर्ज़ी पे 'विश्वास' को
अपनी किस्मत से कोई गिला ही नहीं।