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कोई नई ज़मीं हो नया आसमां भी हो / फ़िराक़ गोरखपुरी
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कोई नयी ज़मीं हो, नया आसमाँ भी हो
ए दिल अब उसके पास चले, वो जहाँ भी हो
अफ़सुर्दगी- ए- इश्क़ में सोज़- ए- निहाँ भी हो
यानी बुझे दिलों से कुछ उठता धुआँ भी हो
इस दरजा इख़्तिलात और इतनी मुगैरत
तू मेरे और अपने कभी दरमियाँ भी हो
हम अपने ग़म-गुसार-ए-मोहब्बत न हो सके
तुम तो हमारे हाल पे कुछ मेहरबाँ भी हो
बज़्मे-तस्व्वुरात में ऐ दोस्त याद आ
इस महफ़िले-निशात में ग़म का समाँ भी हो
महबूब वो कि सर से क़दम तक ख़ुलूस हो
आशिक़ वही जो इश्क़ से कुछ बदगुमाँ भी हो