भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कोई नग़्मा महब्बत का गाएँ चलो / रविकांत अनमोल
Kavita Kosh से
कोई नग़्मा महब्बत का गाएँ चलो
सारे शिकवे गिले भूल जाएँ चलो
एक मुद्दत हुई एक दूजे से हम
रूठे-रूठे से हैं मान जाएँ चलो
तन्हा-तन्हा चले देर तक, दूर तक
अब क़दम से क़दम फिर मिलाँ चलो
प्यार की रौशनी बाँटने के लिए
दीपकों की तरह जगमगाएँ चलो