कोई नहीं जानता / मोहन कुमार डहेरिया
कोई नहीं जानता
किस पर्दे के पीछे छुपा है किसके स्वप्नों का उद्गम
कितनी दूर तक जाएँगे किसके पाप के छींटे
यूँ तो एक का चाँटा होता है दूसरे का गाल
किसी तीसरे की आत्मा को जकड़ सकती है पर
अपमान की अनुगूँज
जैसे कभी-कभी़
संवादहीनता पर चली बहस तो रह जाती है काफी पीछे
पैदा कर देता शब्दों का शोर एक नया सन्नाटा
लिहाजा
कितनी भी समृद्ध हो किसी भी पीढ़ी की विरासत
चाहे जितना उन्नत विज्ञान
कौन लिख सका है पेड़ों की यात्राओं का इतिहास
मनुष्य की समझ से बाहर आज भी परिन्दों के मजाक
फिर इन दिनों तो ऐसी फिसलन
कहा नहीं जा सकता कुछ भी दावे के साथ
कि चमक के नेपथ्य में है कितना गहरा दलदल
किस शुभकामना के पीछे कैसी आशंका
और वह जो छू रहा नयी-नयी बुलन्दियाँ
क्या बता सकता है
रखे उसने जहाँ-जहाँ पैर
सीढ़ियाँ ही थीं नहीं किसी की पीठ या पेट
इसलिए जो निष्कलंक बेशक रहें निष्कलंक
पापी के लिए नहीं पर ऐसी भी दुत्कार
क्योंकि कोई नहीं जानता
धँसा जा रहा जो आज ग्लानि तथा अपमान से जमीन में
धरती के नीचे ही हों उसके शिखर