कोई नहीं तुम्हारा प्रेमी / आलोक श्रीवास्तव-२
कोई नहीं
कोई नहीं तुम्हारा प्रेमी
तुम भी किसी की प्रिया नहीं
जैसे नदी का कोई नहीं है प्रेमी
ऋतुएं आती हैं-
बैशाख, चैत्र, हेमंत, शिशिर फाल्गुन...
पत्तों पर, वृक्षों पर, मैदानों में
पगछाप छोड़ कर चले जाते हैं
रात में तट के झुरमुट में जूही महकती है
दिन में सरसों की आभा में दमक उठता है
]
हवाओं में उड़ रहा है तुम्हारा आंचल
यह कैसी गहरी, भीनी महक है?
प्रेम नहीं,
समय-सा अरुप
भाव से परे
सूक्ष्मतर...
नहीं कोई नहीं तुम्हारा प्रेमी
सौंदर्य और चेतना का रहस्य
मूर्त, अदृश्य और जटिल
एक वितान तानता है
नहीं तुम किसी की प्रिया नहीं
समय में लिखा कोई
बहुत गहरा मानी...
इतिहास ने तो अभी देखे हैं
युद्ध, गर्वित लुटेरे, उपनिवेश
मिस्र और मेसोपोटामिया से
शिकागो की गलियों और
सुदूर द्वीपों तक बिखरा खून
बंजर जमीनें
नहीं, प्रेम नहीं
उसकी कुछ बहुत
महीन झलकें
तुम्हारी चिंतनलीन आंखों में दीप्त
समय का यह कोई गंभीर इशारा
नहीं, प्रेम नहीं.