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कोई भी आँख देखो नम नहीं हैं / पुरुषोत्तम 'यक़ीन'

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कोई भी आँख देखो नम नहीं हैं
ग़ज़ल कहने का ये आलम नहीं है

मेरा इसरार बेमौसम नहीं है
तेरे होटों पे क्यूँ हरदम 'नहीं' हैं

यही अंदाज़ है उन को गवारा
तेरे लहज़े में कोई दम नहीं है

चलन जब से है ज़माने का जाना
मुझे कोई ख़ुशी या ग़म नहीं है

जो होता ज़ख़्म कोई भर ही जाता
किसी नासूर को मरहम नहीं है

ग़ज़ल तो आजकल छपती है ढेरों
मगर अशआर में कुछ दम नहीं है

ज़माने आज़्मा ले जितना चाहे
मेरा भी हौसला कुछ कम नहीं है

तुम्हारे होश आखिर गुम हुए क्यूँ
ग़ज़ल का शे’र है, ये बम नहीं है

'यक़ीन' उस पर करूँ अब और कैसे
वो अपनी बात पर क़ायम नहीं है