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कोई भी चोट तेरी अब हरी न रह जाए / अलका मिश्रा

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कोई भी चोट तेरी अब हरी न रह जाए
मेरे ख़ुलूस में कोई कमी न रह जाए

वफ़ा के नाम पे झूटी जो कौल तूने दी
तेरी वो दिल्लगी दिल से लगी न रह जाए

यूँ हसरतों का मेरी तार तार हो जाना
मेरे वजूद में लाचारगी न रह जाए

मुझे तलाश रही है कोई ख़ुशी शायद
वक़ार-ए-सब्र में कोई कमी न रह जाए

बुलंदियों पे जो पहुंचो तो याद ये रखना
किसी की बात कोई अनसुनी न रह जाए