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कोई भूखा न कोई बेघर हो / हरि फ़ैज़ाबादी
Kavita Kosh से
कोई भूखा न कोई बेघर हो
काश हर आदमी बराबर हो
कल पे कुछ टालने से बेहतर है
आज ही सारी बात खुलकर हो
वक़्त तो हो गया चलो देखें
आज मुमकिन है चाँद छत पर हो
वो मदद आपकी करे कैसे
एक ही जिसके पास चादर हो
कर रहे हो तमाशा क्यों बाहर
घर चलो घर की बात अन्दर हो
साथ उस शख़्स का नहीं अच्छा
कथनी-करनी में जिसकी अन्तर हो
वो ग़ज़ल तो किसी से ले लेगा
कैसे औरों के दम पे शायर हो