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कोई मंज़र नज़र को भाता नहीं / वीरेन्द्र खरे 'अकेला'

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कोई मंज़र नज़र को भाता नहीं
तेरा चेहरा भी याद आता नहीं
 
क्या हसीं ख़्वाब बीच में टूटा
काश कुछ देर तू जगाता नहीं
 
कितना काँटों से डर गया है वो
हाथ फूलों को अब लगाता नहीं
 
एक ये भी है चाँद में ख़ूबी
दाग़ चेहरे के वो छिपाता नहीं
 
रिश्ते आते कहाँ हैं उसके लिए
लड़का अच्छा है पर कमाता नहीं
 
कुछ तो होगा मेरे ख़ुदा तुझमें
मैं कहीं भी तो सर झुकाता नहीं
 
मयकशी कब की छोड़ बैठा हूँ
पीने-पाने से दर्द जाता नहीं
 
बात 'अकेला' की और है वरना
दर्द में कोई मुस्कुराता नहीं