भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कोई मंज़िल नहीं दिखती, सुकूँ का पल नहीं मिलता / देवेश दीक्षित 'देव'
Kavita Kosh से
कोई मंज़िल नहीं दिखती, सुकूँ का पल नहीं मिलता
न जाने क्यों मुझे इन मुश्किलों का हल नहीं मिलता
जिओ ऐसे कि जैसे ज़िन्दगी बस आज तक की हो
किसी को फ़िर कभी गुज़रा हुआ वो कल नहीं मिलता
सियासत में किसी से कुछ, कभी उम्मीद मत करिए
बबूलों के दरख़्तों से कभी संदल नहीं मिलता
किसी की प्यास की शिद्दत किसी को खींच लाती है
मुक़द्दर से किसी भी झील को बादल नहीं मिलता
भुलाकर तुम हमें रोते बहुत हो इन दिनों शायद
तुम्हारी आँख में क्यों आजकल काजल नहीं मिलता