भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कोई मुझे आवाज़ दे रहा है / रणजीत

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ज़िंदगी की राहों पर ठहर कर कई बार
कई बार मुड़कर
इन राहों के मोड़ों पर,
ठिठक कर
सुना है कि जानी-सी ध्वनि कोई
एक लंबी 'जी' के साथ
"जीत" कह गई है।
हारकर हर बार, मुड़कर
देख चुका
राह के सब ओर-छोर
पर नहीं कोई मिला है अब तलक
जो मुझे आवाज़ दे रहा हो;
फिर भी न जाने क्यों मुझे लगता रहा है
कि कोई मुझे आवाज़ दे रहा है।
जब भी गुजरा नई राह से
नए मोड़ से जब भी बीता
तब तब वे चिर-परिचित-से स्वर
मेरे कानों में गूँजे हैं
जाने वे धरती की ध्वनियाँ
या आकाशों की आवाजें
जो फिर-फिर चौंका कर मुझको
दिखलाती हैं: राहें, जिनसे गुजर चुका हूँ
समय, जिसे मैं बिता चुका हूँ
पर गुज़री राहें सूनी है
बीते अतीत में भार भरा
कुछ यादों का
जिनमें से कोई आगे आ
हर बार मुझे है बुला रहा।
ज़िंदगी की हर राह पर
हर मोड़ पर
अक्सर मुझे लगता रहा है
कि कोई मुझे आवाज़ दे रहा है।