कोई मुझे भी खोद कर निकालेगा / संजय कुमार शांडिल्य
कोई मुझे भी खोद कर निकालेगा
नुकीले कुदाल से
और धूल झाड़ने वाले ब्रुश से
साफ़ करेगा मुझ पर
तह हुई सदियाँ
वह चुम्बन जिसे तुमने
विदा के वक़्त मेरे कन्धे पर
अपने होठों के
लाल रंग से लिखा
विदा समय का वह कम्पन
कभी पढ़ेगा वह पुरातत्ववेत्ता
वह समय कभी पुनर्रचित होगा
जिसमें जुड़े रहना मुश्किल था
आसान था बिखर जाना
मेरे हाथ और पाँवों की अस्थियाँ
बटोर कर
कितना मुश्किल होगा
मुझे देख पाना
जैसे तुम देखती हो मुझे
इस झिलमिल से उजाले में
इस घिरते हुए अँधेरे में
वह हवा जिसके विरानेपन में
हमारे फेफड़े कर्मरत हैं
और उन झड़बेरियों के काँटे
जिनसे पगडण्डियों की हरियाली है
जैसे तुम देखती हो मुझे
अपने वज़ूद भर रोज़ लड़ते हुए
और हमारे बुरे वक़्त में
दूसरी ओर घूमे हुए
अपनों की शक़्लें हैं
इन सदियों की धूल
कभी साफ़ हो सकेगी
मेरी ये ऑंखें खुली रहेंगी
अनन्त काल तक
उन अनुमानों के लिए
जिनमें कई झूठ होंगें
उनमें एक चमकता हुआ
सच भी रह सकता है।